Sunday, 1 June 2014

06/02/14

मेरी कलम में जो ये रोशनाई न होती
हमने ये ग़ज़ल यहाँ सुनाई न होती।

करीब होकर भी कितना दूर रहे तुम
थोड़ा समझ जाते तो बेवफाई ना होती।

सात सुरों में पिरोये हमने अपने ज़ज़्बात
इनके बिना बज रही शहनाई न होती।

खुश हूँ तुमने जलाकर जो ख़ाक किया
यूँ हमने दुनिया अलग बसाई न होती।

आज तन्हाईयाँ खुद पीछे भागती हैं मेरे
शौक में यूँ ही उम्र बितायी न होती।

बात बन जाती उस दिन खूब दिलकश
जो नज़रे झुकाये तुम लजाई न होती।

तुम साथ न देते ऐतबार ही कर लेते 
तड़पाने को तुम्हे क़सम उठाई न होती।

ये सारे लफ्ज़ ज़ेहन से निकले है प्रसनीत
बिन इनके एहसासों की दिलरुबाई न होती।  

~ प्रसनीत यादव ~
०६/०२/१४

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